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Thursday, March 2, 2023

मातृ-भाषा के प्रति कृतज्ञता

(यह पोस्ट कल रात ही लीखा गया था, तकनीकी कमी के कारण प्रकाशित न हो सका । आज प्रकाशित कर रही हूँ इसीलिए तिथि और समय कल का ही है )







दिनांक :- ०२ /०३  /२०२३ 

दिन : - सोमवार 

समय :- रात ११ :३० बजे 

मेरी प्यारी डायरी ,
जानती हूँ कि  तुमसे बहुत दिनों के बाद मिलने आ रही हूँ पर तुम नाराज़  मत हो यार , मेरी परीक्षाएं चल रही थी । परसों  जा कर खत्म हुई तो आ गई तुमसे बात-चीत करने। वैसे परसों केवल मेरी परीक्षा का आखिरी दिन नहीं था , एक और बहुत विशेष दिन था - राज्य-भाषा मराठी दवस ।  परसों  जैसे ही कॉलेज पहुंची  तो  वंदनवार , दीपकों और रंगोली की सजावट देख मन हर्षित होने लगा । ऑडिटोरीअम  से  " लाभले आम्हास भाग्य बोलतो मराठी, झालो खरेच धन्य  ऐकतो मराठी" (हम भाग्यशाली  जो मराठी बोल रहे हैं और हम सच में ही धन्य हुए जो हम मराठी सुन पा रहे हैं )    गीत  के मधुर पर उत्साही स्वर कानों में पड़ने लगे और परीक्षा का तनाव जाता रहा  । कुछ समय के लिए मैं  भी किताब बंद कर , गीत सुनने लगी और  मेरे मन में विचार आया कि  सच में ही हम कितने भाग्यशाली हैं जो अपनी मातृभाषा बोल और सुन सकते हैं और हमारी भारत-भूमि कितनी समृद्ध है जहाँ अनेक सुंदर भाषाएं  बोली जाती है।  

वाल्मीकि रामायण में प्रभु श्री राम लक्ष्मण जी से कहा था "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपी गरियसी " (जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है )  तो फिर यह भी कहना अतिशयोक्ति नहीं कि  अपनी मातृभाषा में अपनी अभिव्यक्ति करने का सुख भी स्वर्ग के सुख से ऊँचा  है परंतु क्या हम नित्य  इस सौभाग्य की अनुभूति कर पाते हैं ? क्या हम अपने हृदय और अपने जीवन में अपनी मातृभाषा को सर्वोच्च स्थान देते हैं ? क्या हम सब को (विशेष कर युवाओं को )इस बात का आभास भी है कि  हम किस प्रकार अपनी मातृभाषा से दूर होते जा रहे हैं ?

धरती, नदियों और गौमाता की तरह भाषा को भी माँ की उपमा दी गई क्योंकि जैसे एक माँ, असीम ममता से  अपनी संतान का पालन-पोषण करती है, उसी प्रकार एक राष्ट्र या सभ्यता का पालन - पोषण उसके द्वारा  बोले जाने वाली भाषा ही करती है ।  यही कारण है कि  साहित्यिक संसार में हर भाषा को माँ सरस्वती का रूप माना  गया है और अपनी जन्मभूमि पर बोले जाने वाली भाषा को हम मातृ-भाषा कहते हैं  । 

आज भले ही शब्दकोश ने "भाषा" का अर्थ "संवाद करने का  यंत्र " तक सीमित कर दिया हो और मातृभाषा का अर्थ "माँ से सीखी गई भाषा" बताया हो पर यदि कोई  मुझ से पूछे तो "भाषा " कि महिमा और उसकी विशालता इससे कई अधिक है ।  हमारी मातृभाषा ही वह माध्यम है जो हमें अपनी जन्मभूमि और अपने समाज से जोड़ती है , अपनत्व के गहरे संबंध स्थापित करती है, हमारे भीतर कई मधुर और गहरे भावों को जगाती है और हमें अपने संस्कारों से जोड़ती है । हमारी मातृभाषा हमारी सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पहचान है ।

भारत ७०० से अधिक भाषाओं की जन्मस्थली है । विश्व के सभी भाषाओं की जननी "संस्कृत" और उसके बाद समकालीन भारत में बोले जाने वाली सभी प्रांतीय भाषाओं और लोक -बोली का जन्म यहीं हुआ । जहाँ हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी पूरे देश को एक मजबूत धागे से जोड़ी रखती है तो वहीं भारत में बोले जाने वाली सभी प्रांतीय  भाषाएँ हमें हमारे देश की विविधतापूर्ण संस्कृति से अनुभव कराती है  और "विविधता में एकता " के भाव को पोषित करती है । भारत की संस्कृति और महान विचारों को सहेजे हुए , हर भारतीय भाषा अपने आप में सजीव और सम्पन्न है । 

मराठी भाषा बोलते या सुनते ही हमें छत्रपती शिवाजी महाराज, महारानी अहिल्याबाई होल्कर, संत तुकाराम, भक्त  जनाबाई और महान कवि कुसुमग्रज जी ( जिनकी जयंती २७ फरवरी को हर साल  मराठी दिवस मनाया जाता है ) जैसे कई महानायक स्मरण हो आते हैं । गुजराती में संत नरसी मेहता और हम सब के प्यारे बापू की छवि सरलता से दिखाई पड़ जाती है । अवधि, मैथिली और ब्रज-भाषा में तुलसी-दस जी, सूर-दास जी और भक्ति संप्रदाय के अनेक संतों के उपदेश छिपे मिलते हैं तो राजस्थानी भाषा महाराणा प्रताप की वीरता और पन्ना -दाई के बलिदान से परिचय करा देती है । पंजाबी भाषा में हमारे सिख गुरुओं का अनुपम ज्ञान छिपा  है तो दक्षिण की भाषाएं  में महर्षि कंबन, भक्त अंडाल और महान सम्राट राजा-राजा चोला का पुण्य- प्रताप । 

मुझे भारत की हर भाषा समान रूप से प्रिय है ( यद्यपि हिन्दी का मेरे मन में विशेष स्थान है क्योंकि वह मेरी राष्ट्रभाषा और मातृभाषा दोनों है )

फिल्मी गीतों ने भी इस संपन्नता को बखूबी दर्शाया है । "अंग्रेजी में कहते हैं आय लव यू , गुजराती मा बोलूँ तमे प्रेम करछों , बंगाली में कहते हैं "आमी तुमारके भालो-बाषी  और  पंजाबी में कहते है "मैं तैनु प्यार करना " जैसे गीत बड़े ही रोचक ढंग से इस विविधता का परिचय कराते हैं ।  

इसके बाद भी  मैं अपने आस-पास देखती हूँ  आज हम दिनों-दिन अपनी मातृभाषा और राष्ट्र-भाषा से दूर होते जा रहे हैं । आज युवा फैशन और आधुनिकता के नाम पर आपनी मातृभाषा और राष्टभाषा हिन्दी  के बनिस्पत न केवल अंग्रेजी और अन्य पाश्चात्य भाषाओं को ऊंचा मानते हैं पर अपनी भाषा को बोलने में झिझक और संकोच का अनुभव भी करते हैं ।  अंग्रेजी की पुस्तक दो तो बड़ी सरलता और चाव से पढ़ जाएंगे पर हिन्दी या फिर उनकी अपनी ही मातृभाषा या प्रांतीय भाषा में कविता भी  पढ़ने  कहो  तो बोलेंगे " ये हमारे लिए बहुत अधिक क्लिष्ट है, हमें समझने में कठिनाई होती है। आज कल इस भाषा में कौन पढ़ता  लिखता है यार , मैं मराठी / गुजराती / को और भारतीय भाषा बोल तो लेता हूँ पर पढ़ना नहीं हो पाता"। यहाँ तक की कुछ लोग  तो हनुमान चालीसा  का पाठ भी अंग्रेजी में करना पसंद करते हैं । 

हमारे प्रथम राष्ट्रपति  माननीय  डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी  का कथन  था " जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य पर गर्व न हो, वह उन्नति नहीं कर सकता "।  रमण -इफेक्ट का शोध करने वाले और नोबल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय वैज्ञानिक सी . वी रमण  ने कहा था   "हमें विज्ञान  की शिक्षा बच्चों  को उनकी मातृभाषा में ही देनी चाहिए, अन्यथा विज्ञान एक छद्म कुलीनता और मगरूरीयत भरी गतिविधि बन कर रह जाएगा"  पर इसके बाद भी हम अंग्रेजी बोलने को ही शिक्षित होने का एकमात्र परिचय समझते हैं । जपान , फ्रांस और स्पेन जैसे कई देश अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा में शिक्षित करते हैं  पर भारत में  हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में शिक्षा देने वाले विद्यालयों को अंग्रेजी- माध्यम विद्यालयों से निम्न माना जाता है ।  

मैं इसे सब से बड़ी विडंबना  मानती हूँ क्योंकि जिस प्रकार अपनी माँ का हाथ छुड़ाकर भाग जाने वाला बच्चा बाज़ार में गुम  हो जाता है और अपने घर का पता नहीं कर पाता, उसी प्रकार अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा से विमुख देश अपनी पहचान खो देता है और उसका अस्तित्व खत्म हो जाता है । अतः  समय रहते जाग जाना ही हितकर है ।

एक दुख की बात यह भी है कि आज समाज में कई ऐसे तत्व हैं जो प्रांतीय भाषा पर गौरव करने के नाम पर राष्ट्र- भाषा हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं   का तिरस्कार करने लगे हैं और कुछ अपनी राष्ट्र-भाषा को बचाने के लिए अन्य  भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी को निम्न बताने लगे हैं । इसमें हमारी शिक्षा पद्धति का भी बहुत बड़ा हाथ है। विद्यालयों में अंग्रेज़ी और प्रांतीय भाषा को अनिवार्य रखा गया है पर राष्ट्रभाषा हिन्दी वैकल्पिक कर दी गयी।  यह हमारे लिए बहुत घातक है क्योंकि अपनी भाषा पर गर्व करना तभी सार्थक है जब वह हमें हमारे राष्ट्र और विश्व से जुडने में सहायता करे । यदि ऐसा न हुआ  तो हमारे देश की एकता को ठेस पहुँचती रहेगी और हम अपनी "विविधता में एकता" की सुंदर पहचान और " वसुदैव कुटुंबकम" की संस्कृति को खो देंगे । 

मैं ने बचपन  में अपनी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में एक वाक्य पढ़ा था " हर भाषा गंगाजल के समान निर्मल है "। यह वाक्य सदैव मेरे साथ रहेगा । हर भाषा अपने आप में पूर्णतः स्वच्छ और सुंदर है और अपनी संस्कृति की संवाहक है।   भाषा का तिरस्कार मानव-संस्कृति का तिरस्कार है और इसीलिए हमें हर भाषा का सम्मान करना चाहिए 

अंत में मैं यही कहूँगी कि  मैं कृतज्ञ हूँ कि  मेरा जन्म भारत में हुआ जहाँ इतनी साहित्यिक और सांस्कृतिक संपन्नता है । मैं इसीलिए भी कृतज्ञ हूँ कि  मेरे घर और मेरे विद्यालय के कारण भारत की हर संस्कृति से मेरा परिचय हो सका और इसीलिए भी कि मेरी राष्ट्रभाषा ही मेरी  मातृभाषा है । 

तुम्हारे माध्यम से आज सब से यह निवेदन भी करती हूँ  कि  अपनी मातृभाषा और राष्ट्र-भाषा की निकट आने और रहने का प्रयास करें। जिस सुख और संतोष की प्राप्ति अपनी मातृभाषा में अभव्यक्ति  करने से मिलेगी , वह सच  ही अनूठा है । में इस बात का अनुभव स्वयं करती हूँ , यही कारण है मेरी प्यारी डायरी कि  मैं तुमसे संवाद भी अपनी मातृभाषा में करती हूँ ।  

चलो बहुत रात हो चुकी है,  आज  तुमसे बात-चीत करने में समय का पता ही न चला । तुम भी सो जाओ , शुभ-रात्री। फिर मिलूँगी । 

तुम्हारी अनंता 


  




 




 






 









 



 



 



   

Saturday, November 26, 2022

नन्नन !

 






दिनांक:- २६  नवम्बर २०२२

समय:-  दोपहर  १२ :०० बजे

प्रिय डायरी,
     आज बड़े दिनों बाद माँ के साथ बैठ कर गाने सुन रही थी । माँ को काम करते-करते पुराने फिल्मी -गीत  सुनना अच्छा लगता है और अब उनके साथ सुनते-सुनते कुछ गीत तो मुझे भी अच्छे लगने लगे हैं, बल्कि  कुछ   गीत आज के  गानों से अधिक सुरीले और अर्थपूर्ण लगते  हैं । 
आज ऐसा ही एक गीत सुना - "तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में  शामिल है , जहाँ भी जाऊँ , ये लगता है तेरी महफ़िल है" और बस मुझे  "नन्नन"  की याद आ गई । 

सोचा , आज एक बार पुनः उन  पलों को जियूँ जो मेरे जीवन की सबसे अनमोल पूँजी है । अतः ,  आज मैं तुम्हें अपने जीवन के सबसे विशेष और अनमोल व्यक्ति से मिलाने लायी हूँ, मेरे जीवन की पहली गुरु,  मेरी नानी जिन्हें मैं प्यार से ""नन्नन" कह कर बुलाती हूँ। बचपन में मैं नानी शब्द पूरा बोल नहीं पाती थी, तब से "नन्नन" नाम चिपक गया है। हम सब के जीवन में कोई -न -कोई ऐसा व्यक्ति ज़रूर  होता है , जिसे हम अपना सबसे मजबूत संबल मानते हैं , जिसमें  अपने  मित्र , गुरु और मार्गदर्शक  को एक साथ पाते हैं ,मेरे लिए वह व्यक्ति नन्नन हैं ।  
पता है , आज तुमको मुझ में जो भी अच्छाई  दिखाई देती है,  वह सब मेरी नन्नन कि ही देन है। मेरा पालन- पोषण उन्हों ने ही किया है।  माँ ऑफिस जाती थी और  शाम को ही घर आती, इसीलिए  मेरे बालपन का सबसे अधिक समय नन्नन के साथ बीता और इसे मैं अपने जीवन का सब से बड़ा सौभाग्य मानती हूँ।
नन्नन  बहुत अनुशासन प्रिय है थीं , शुद्ध कर्मयोग का प्रतीक। सदैव घड़ी के अनुसार चलने वाली, बल्कि घड़ी से भी पहले। उनके "नौ दस ग्यारह बारह" एक साथ बजते, यह बात हमारे घर में जितने गर्व की होती , उतनी ही हँसी की भी। जब भी हमें सुबह नाश्ते के लिए या रात को सोने में देर होती तब नन्नन कहतीं " नौ दस ग्यारह बारह बज रहा है बेटा, नाश्ता कब करोगी/सोने कब आओगी  ?" माँ और मेरी हंसी छूट जाती, तब हम लोग उनसे कहते " अब यह भी बता दो, कि निश्चित कितने बजे हैं " । जब सर्दी के मौसम में दिन छोटे हो जाते तब यह वाक्य और भी अधिक सुनने को मिलता , विशेष कर सुबह की ओर, कारण दिन जल्दी बीतता सो नन्नन  की पूजा सुबह आठ बजे के स्थान पर नौ बजे होती  और उन्हें देर हो रही है , यह सोच कर वे परेशान हो जातीं । 
  
मेरा पालन-पोषण भी सम्पूर्ण अनुशासन से किया। किस समय पढ़ाई करनी है, कब खेल का समय है, टीवी कितने समय तक देखना है, सब  कुछ एक अनुशासित टाइम - टेबल के अनुसार होता पर यह अनुशासन इतनी कोमलता, सहजता और आनंद के साथ किया गया कि सब कुछ खेल-खेल में हो गया। 
आज जब मैं अपने आस-पास  किसी छोटे बच्चे को अनुशासन में न रहने के लिए या पढ़ाई-लिखाई की बात पर माता-पिता से डांट खाते देखती हूँ या फिर क्लास में मिले अंकों के लिए माता-पिता को हैरान-परेशान, बच्चों को एक ट्यूशन से दूसरे ट्यूशन भेजते देखती हूँ, तो सोंचती हूँ कि नन्नन कितनी मौलिक और बुद्धिमान थीं। अनुशासन के लिए कठोरता तो सभी करते हैं पर मेरी नन्नन कोमल अनुशासन का मूर्तिमान रूप हैं। 

वैसे तो नन्नन के साथ बचपन की यादें बहुत है पर  मेरा सब से प्यारा समय था "कहानियों का समय"।नन्नन हर रात मुझे कोई न कोई नई कहानी सुनाती, कभी भगवान राम की, कभी कान्हा जी के बचपन  की ढेरों कहानियाँ, और कभी पंच-तन्त्र और  जातक कथा की खूब सारी कहानियाँ और मुझे यह कहते हुए बहुत गर्व होता है  कि मैं ने अपने सभी जीवन-मूल्य नन्नन की कहानियों से सीखे। आज  बड़े होने पर भी  मुझे   नन्नन की कहानियाँ सुनना और उनके साथ समय बिताना अच्छा लगता ,  बस इतना फर्क इतना था  कि उनकी कहानियाँ सुनने के साथ-साथ,  मैं  भी उन्हें एक -आध कहानियाँ सुनाने लगी थी । कभी ब्लॉग जगत, प्रतिलीपि या किसी पुस्तक में पढ़ी हुई या फिर अपनी लिखी हुई।

नन्नन जितनी कोमल और स्नेहिल हैं, उतनी सबल भी हो सकती हैं और समय पड़ने पर सही फटकार भी लगा सकती हैं, यह मुझे तब पता चला जब मैं पांचवी कक्षा में थी। मैं रोज़ अपनी बाकी सहेलियों के साथ स्कूल से घर लौटती, उस में कुछ लड़कियाँ थोड़ी ज़्यादा चतुर थीं। बचपन की मित्रता में लड़ाई-झगड़े और थोड़ा चिढ़ाना आम बात होती है। मेरी कुछ सहेलियों ने मुझे भी चिढ़ाने की कोशिश की, यह देख कि मैं सहजता से चिढ़ रही हूँ, उन्हें मुझे तंग करने में ज़्यादा मज़ा आ रहा था। नन्नन यह खिड़की  से देख रहीं थीं, वे नीचे उतर कर आयीं और सब बच्चों को अच्छी फटकार लगाई पर अगले ही क्षण बड़े प्रेम से मेरी सभी सहेलियों को अपने पास बुलाया,  अच्छे और बुरे मज़ाक के बीच का अंतर समझा कर, बहुत ही स्नेह से हम सब की मित्रता फिर से करा दी।
मेरी सहेलियाँ तो अचंभित ही थीं, पहले डाँट फिर इतना प्यार। मैं मात्र आनंदित थी, मुझे तो पता था कि अंत में होना क्या है।

अनुशासन के साथ नन्नन  की दो सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा थी सदाचरण और सच्ची मित्रता। नन्नन ने मुझे हमेशा समझाया कि किसी को जान-बूझ कर दुखी करने से बड़ा गलत काम कुछ नहीं। वैसे ही  उनका यह  भी कहना था कि अच्छा मित्र होना, अच्छे  मनुष्य होने कि निशानी है। यदि कोई बच्चा अच्छा मित्र बनने का अभ्यास करे, तो आगे चल कर  अच्छा इंसान भी बनेगा। यह बात उन्हों ने मुझे कृष्ण-सुदामा और  प्रभु राम-सुग्रीव की मित्रता की कथा सुनाकर बताई थी। उसी प्रकार  अपने गुरुजनों का आदर करने की शिक्षा भी मुझे छोटी आयु से ही दी गई,  यही कारण है कि आज भी अपने शिक्षकगणों  का आशीष मुझे मिलता रहता है । 

जैसे- जैसे मैं  बड़ी हुई, अच्छे और बुरे मित्रों के बीच का अंतर भी उन्हों ने समझाया। ये ज्ञान मेरे तब बहुत काम आया जब मैं ने कॉलेज में प्रवेश किया। उनका स्पष्ट कथन  था, यदि कोई हमारा सच्चा मित्र हो तो हमें कोई भी गलत काम करने के लिए कभी नहीं उकसाएगा, ना ही कभी हमें कुछ ऐसा करने को कहेगा जिस में हमारा अहित हो या हमारी अंतरात्मा उस कार्य को करने की अनुमति न देती हो  और ना ही कभी हमें कोई अच्छा कार्य करने से रोकेगा ।  नन्नन  की यह सभी  शिक्षाएं केवल कथन  नहीं थीं , यह सभी बातें उनके आचरण में भी समाहित थीं । 

नन्नन का स्नेह और अपनत्व केवल घर तक सीमित नहीं  था ,  अपने आस-पास के सभी परिचितों  और माँ और मेरे मित्रों को भी मिलता रहता । मुझे टिफिन देते समय, मेरी सहेलियों के लिए भी अपने हाथ के बनाए पकवान पैक   करना , यह कह कर  "बेटा , सब के साथ मिल- बाट कर  खाना "।  कभी यदि मैं उन्हें  घर आ कर बताती कि  मेरी कोई सहेली दुखी है या अस्वस्थ है और उसके प्रति अपनी चिंता व्यक्त करती तो बड़े स्नेह से यह कहना " कोई बात नहीं बेटा , भगवान जी  सब ठीक  कर देंगे" और सच्चे मन से उनके लिए शुभ कामना और आशीष देना  । कभी-कभी जब मैं उसके अगले दिन स्कूल या कॉलेज से घर लौटती, तब  उस सहेली का हाल चाल भी पूछतीं "तुम्हारी सहेली कल तो रो रही थी, आज कैसी है"।

नन्नन का कर्मयोग भी इसी प्रकार अनुशासन और ममत्व से चलता रहता, चाहे उनका कमर और उनके पैर दर्द से बेहाल क्यों न हों, वे घर का काम करना नहीं छोड़तीं । हमारे लिए स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन बनाना, मेरे बालों में तेल लगाना, या हमारी चीजों को सजाना-सवारना, मुझे अपने पास बैठा कर जीवन के अनुभव बताना , मुझे कोई-न-कोई शिक्षा और प्रोत्साहन देना , अनवरत चलता रहता । 

उनके बनाये पकवान हर त्योहार और उत्सव में रंग भर देते और कभी-कभी तो उनके हाथ का बना खाना खाना अपने आप में उत्सव होता ।  दुर्गा -पूजा और दीपावली में उनके हाथ के नारियल के लड्डू, पीड़किया , लवंग-लता,  यहाँ तक की रसगुल्ले , रसमलाई  और छोले-भटूरे भी  और होली में उनके दही-बड़े और मालपूए  की बड़ी धूम मचती । मेरे लिए तो हर कौर में परमानंद होता । सामान्य दिनों में भी  हमारा फ्रिज कभी खाली  न होता , नन्नन  एक से एक पौष्टिक और स्वादिष्ट पदार्थ   बना कर रखतीं  " हनु गिरधारी को पढ़ाई करते-करते भूख लगेगी तो खाएगी "।  हाँ , नन्नन का वश  चलता तो मुझे प्यार से सारे भगवानों के नाम दे देतीं । बचपन से ही कभी गिरधारी, कभी गणेशु  तो कभी कोई और भगवान का नाम ।  घर में पुकार का नाम हनु ( हनुमान जी पर ) और मेरा शुभ नाम  "अनंता " भी रामायण से ढूंढ कर उन्हों ने ही रखा ।  

घर में कोई भी सब्ज़ी यदि मेरे पसंद की बनी हो , विशेष कर पनीर , कटहल , स्वादु बैंगन या आचारी मिर्ची, तब वे मुझे अपनी थाली में से थोड़ी  सब्ज़ी ज़रूर  निकाल कर  मेरी थाली में डाल देतीं । माँ कभी-कभी नराज होतीं  क्योंकि नन्नन स्वयं ही कम खातीं थीं, बड़े होने पर तो मैं भी कभी-कभी मना करने लगी थी , पर वे नहीं मानतीं, कहतीं " बड़ों का स्नेह और आशीष ठुकराते नहीं हैं "। 
मैं भी उसके बाद से  उनका आशीष मान कर ही उनकी थाली की सब्ज़ी खाती थी ।  

नन्नन के लिए उनका घर और उनके बच्चे  उनकी जीवन-धूरी  थे । अपने जीवन के अंतिम दो- ढाई  वर्ष उन्हों ने  हमें तरह-तरह के पकवान खिला कर और घर को अपनी हस्त-कलाओं से सजाने में व्यतीत किया । लॉक- डाउन  के समय से ही उनकी इन सभ कार्यों में एक विशेष तीव्रता और निरन्तरता आ गई थी । मानों , अपनी हस्तकला के रूप में घर के कोने-कोने को अपने स्नेह और  आशीष से सींच रहीं हों ( तब नहीं सोचा था कि वे अस्वस्थ होंगी और इस जून  भगवान जी उन्हें अपने पास बुला लेंगे )। वैसे ही उनके हाथों के  बनी कौन-कौन से व्यंजन मुझे अधिक प्रिय हैं , वह भी सिखाया, कहतीं " जो चीजें तुमको खाना  पसंद है, उन्हें बनाना तो सीख ही लो । 

आज भी नन्नन मेरा सब से बड़ा मानसिक बल और सब से बड़ा आधार हैं। भले ही माँ जानकी ने उन्हें अपने पास बुला लिया हो , उनकी शिक्षाएं, बातें और उनका आशीष  सदैव मेरे साथ हैं और  मेरे जीवन की अनमोल पूँजी हैं ।  नन्नन अब मेरे लिए पूरा घर हो गई है , मेज़ पर बिछे टेबल -क्लॉथ  से लेकर बाथरूम के आगे बिछे फुट- मैट तक, सब उन्हीं का सिला हुआ है ।  उनके हाथ के सिले हुए सुंदर फ़्रॉक मेरे लिए उनका अनमोल स्नेह है । मम्मा  (बड़ी मासी ) के हाथ के छोले-भटूरे के स्वाद में , माँ की गृह-कुशलता में , मौसाजी  के इडली और डोसे में , मेरी कविताओं में , सब में उनका अस्तित्व समाया है । 

आज मैं तुम्हारा एक पन्ना अपनी जीवन की इस पहली गुरु को समर्पित करती हूँ, जिनके बिना मेरा जीवन अधूरा है। 
साथ ही साथ, मैं यह भी कामना करती हूँ कि मेरी तरह प्रत्येक बच्चे और युवा को उसके घर के बुजुर्गों की छत्र-छाया मिले। हमारे नाना-नानी और दादा-दादी का प्यार न केवल  हमारा चरित्र और जीवन सँवारता है , बल्कि हर क्षण हमें राह दिखाता है। किसी ने सच ही कहा है "जीवन की सबसे बड़ी और सबसे अच्छी पाठशाला हमारे बुज़ुर्गों के चरणों में है।

तुम्हारे माध्यम से ही नन्नन को आज सुने गीत की कुछ पंक्तियाँ समर्पित करती हूँ :-

तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शमिल  है ,
जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफिल  है । 
हर एक फूल किसी याद सा महकता है, 
तू पास हो कि  नहीं , फिर भी तू मुकाबिल है । 


ठीक है , तुम्हारे साथ आज बहुत लंबा समय बिताया। खाने का समय हो रहा है  और माँ भी नाराज़ हो रही है।
तुम से कल मिलती हूँ।
तुम्हें एक बात और बतानी है,  मेरे कॉलेज में हमें रिसर्च -असाइनमेंट  मिला है , शिक्षा या बाल-मनोविज्ञान संबंधी हम किसी भी विषय में एक री -सर्च कर सकते हैं । अतः संभव है कि किसी दिन तुमसे बात करने में देर हो या किसी दिन तुमसे मिलने आ ही न पाऊँ । तुम भी मेरे लिए  प्रार्थना  करना कि  मुझे सफलता मिले , अगले सप्ताह फिर मिलेंगे , तब तुम्हें तुम्हारा नाम भी मिल जाएगा । 
बाये, सी यु।

तुम्हारी  अनंता 

Thursday, November 17, 2022

कृतज्ञता का महत्व

 




दिनांक:- 17 नवंबर 2022

समय:- रात 10:10 बजे

प्रिय डायरी,
आज तुमसे पहली बार मिल रही हूँ। आशा करती हूँ  कि यह  मिलन स्नेह, सकारात्मकता और आनंद से भरपूर एक सुंदर अनुभव में परिवर्तित होगा और समय के साथ हमारी मित्रता और गहरी होती जाएगी।
डायरी के महत्व के विषय में बहुत पढ़ा और सुना था। हमारी मनोविज्ञान शिक्षिका हमें डायरी-लेखन के लिए प्रोत्साहन भी देतीं थीं, उनका कहना था कि डायरी लेखन स्वस्थ मानसिकता और आत्म-परिचय का सबसे सुंदर और सशक्त स्रोत बन सकता है और मनोविज्ञान के विद्यार्थी होने के नाते हमें डायरी लेखन की आदत डालनी चाहिए परंतु तब मुझे इसके प्रति रुचि नहीं पनपी थी।
तब सोंचा कि रोज़-रोज़ क्या लिखूँगी? नित्य कुछ नया तो होता नहीं और फिर सारे दिन एक समान कहाँ होते हैं? कोई दिन इतना सुंदर  बीतता है कि मन करता है उस दिन को सदा अपने पास कैद कर के रख लो और कोई दिन बुरा होता है  जिसे  पुनः  स्मरण करने का मन नहीं करता और बाकी दिन इतने समरस कि उनके बारे में क्या लिखो, यह समझ में नहीं आता।
इस प्रश्न का उत्तर मुझे एक यूट्यूब वीडियो से मिला जिसे मेरी ही तरह एक कॉलेज छात्रा ने बनाया था। उसने एक "gratitude journal" या कृतज्ञता डायरी लिखने कि बात की। उसने कहा कि प्रत्येक दिन क्या-क्या हमारे साथ अच्छा हुआ (चाहे कितनी छोटी बात ही क्यों न हो) यह लिख कर या फिर किसी व्यक्ति जिसका हमारे जीवन में योगदान हो, उसे डायरी का एक पन्ना समर्पित करें। यह सुझाव मुझे बहुत अच्छा लगा और इसीलिये आज सबसे पहली कृतज्ञता मैं उस छात्रा के प्रति ही व्यक्त करती हूँ जिसने यह सुंदर सुझाव हम सब के साथ साझा किया।
कृतज्ञता के महत्व पर यदि कुछ बताया जाए तो वह सूर्य को दीप दिखाने जैसा होगा।
किसी ने सच ही कहा है "कृतज्ञता सभी सुखों और जीवन-मूल्यों की जननी है"। यदि हम सब अपने जीवन में  मिले अच्छे - बुरे अनुभवों के लिए कृतज्ञ होना सीख जाएं तो हमारे पास असन्तोष व्यक्त करने का कोई कारण न बचे। हमारा मन प्रेम और सकारात्मकता से भरा रहेगा और अकारण क्रोध और द्वेष से भी हमारा मन मुक्त हो जायेगा। जिसका मतलब है रोज़ के कट -कट से छुट्टी।

यह समझने की क्षमता भी मुझ में अब आयी है कि एक समरस और सामान्य दिन एक बहुत ही शुभ दिन है और एक सामान्य दिन की सुंदरता को न देख पाना हमारी संकीर्ण  बुद्धि का ही परिचायक है। हम एक-दूसरे से सहजता से कहते हैं, अपने आशीष गिनो(काउंट योर ब्लेसिंग्स) परन्तु ऐसा करने की आदत खुद को नहीं डाल पाते। कृतज्ञता डायरी जीवन के छोटे-छोटे सुखों को अनुभव करने का और उन पर ध्यान देने का एक सुंदर तरीका है।
वैसे तो डायरी व्यक्ति के सभी सुख-दुख की सच्ची साथी मानी जाती है पर  मैं तुम्हारे साथ हर दिन का अच्छा अनुभव साझा करना चाहती हूँ। तुम मेरी सुखद स्मृतियों और सफल प्रार्थनाओं की पूंजी बनों और हर दिन तुम्हारे साथ बांटने के लिए मेरे पास शुभ और कृतज्ञता से भरे क्षण बढ़ते जाएं, ऐसी आशा करती हूँ।
 इसी कामना के साथ आज तुमसे विदा लेती हूँ और हाँ शीघ्र तुम्हारा कोई अच्छा नाम भी सोंचना होगा । 
बाये-बाये , कल मिलती हूँ।
तुम्हारी अनंता

मातृ-भाषा के प्रति कृतज्ञता

(यह पोस्ट कल रात ही लीखा गया था, तकनीकी कमी के कारण प्रकाशित न हो सका । आज प्रकाशित कर रही हूँ इसीलिए तिथि और समय कल का ही है ) दिनांक :- ०२...