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Thursday, March 2, 2023

मातृ-भाषा के प्रति कृतज्ञता

(यह पोस्ट कल रात ही लीखा गया था, तकनीकी कमी के कारण प्रकाशित न हो सका । आज प्रकाशित कर रही हूँ इसीलिए तिथि और समय कल का ही है )







दिनांक :- ०२ /०३  /२०२३ 

दिन : - सोमवार 

समय :- रात ११ :३० बजे 

मेरी प्यारी डायरी ,
जानती हूँ कि  तुमसे बहुत दिनों के बाद मिलने आ रही हूँ पर तुम नाराज़  मत हो यार , मेरी परीक्षाएं चल रही थी । परसों  जा कर खत्म हुई तो आ गई तुमसे बात-चीत करने। वैसे परसों केवल मेरी परीक्षा का आखिरी दिन नहीं था , एक और बहुत विशेष दिन था - राज्य-भाषा मराठी दवस ।  परसों  जैसे ही कॉलेज पहुंची  तो  वंदनवार , दीपकों और रंगोली की सजावट देख मन हर्षित होने लगा । ऑडिटोरीअम  से  " लाभले आम्हास भाग्य बोलतो मराठी, झालो खरेच धन्य  ऐकतो मराठी" (हम भाग्यशाली  जो मराठी बोल रहे हैं और हम सच में ही धन्य हुए जो हम मराठी सुन पा रहे हैं )    गीत  के मधुर पर उत्साही स्वर कानों में पड़ने लगे और परीक्षा का तनाव जाता रहा  । कुछ समय के लिए मैं  भी किताब बंद कर , गीत सुनने लगी और  मेरे मन में विचार आया कि  सच में ही हम कितने भाग्यशाली हैं जो अपनी मातृभाषा बोल और सुन सकते हैं और हमारी भारत-भूमि कितनी समृद्ध है जहाँ अनेक सुंदर भाषाएं  बोली जाती है।  

वाल्मीकि रामायण में प्रभु श्री राम लक्ष्मण जी से कहा था "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपी गरियसी " (जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है )  तो फिर यह भी कहना अतिशयोक्ति नहीं कि  अपनी मातृभाषा में अपनी अभिव्यक्ति करने का सुख भी स्वर्ग के सुख से ऊँचा  है परंतु क्या हम नित्य  इस सौभाग्य की अनुभूति कर पाते हैं ? क्या हम अपने हृदय और अपने जीवन में अपनी मातृभाषा को सर्वोच्च स्थान देते हैं ? क्या हम सब को (विशेष कर युवाओं को )इस बात का आभास भी है कि  हम किस प्रकार अपनी मातृभाषा से दूर होते जा रहे हैं ?

धरती, नदियों और गौमाता की तरह भाषा को भी माँ की उपमा दी गई क्योंकि जैसे एक माँ, असीम ममता से  अपनी संतान का पालन-पोषण करती है, उसी प्रकार एक राष्ट्र या सभ्यता का पालन - पोषण उसके द्वारा  बोले जाने वाली भाषा ही करती है ।  यही कारण है कि  साहित्यिक संसार में हर भाषा को माँ सरस्वती का रूप माना  गया है और अपनी जन्मभूमि पर बोले जाने वाली भाषा को हम मातृ-भाषा कहते हैं  । 

आज भले ही शब्दकोश ने "भाषा" का अर्थ "संवाद करने का  यंत्र " तक सीमित कर दिया हो और मातृभाषा का अर्थ "माँ से सीखी गई भाषा" बताया हो पर यदि कोई  मुझ से पूछे तो "भाषा " कि महिमा और उसकी विशालता इससे कई अधिक है ।  हमारी मातृभाषा ही वह माध्यम है जो हमें अपनी जन्मभूमि और अपने समाज से जोड़ती है , अपनत्व के गहरे संबंध स्थापित करती है, हमारे भीतर कई मधुर और गहरे भावों को जगाती है और हमें अपने संस्कारों से जोड़ती है । हमारी मातृभाषा हमारी सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पहचान है ।

भारत ७०० से अधिक भाषाओं की जन्मस्थली है । विश्व के सभी भाषाओं की जननी "संस्कृत" और उसके बाद समकालीन भारत में बोले जाने वाली सभी प्रांतीय भाषाओं और लोक -बोली का जन्म यहीं हुआ । जहाँ हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी पूरे देश को एक मजबूत धागे से जोड़ी रखती है तो वहीं भारत में बोले जाने वाली सभी प्रांतीय  भाषाएँ हमें हमारे देश की विविधतापूर्ण संस्कृति से अनुभव कराती है  और "विविधता में एकता " के भाव को पोषित करती है । भारत की संस्कृति और महान विचारों को सहेजे हुए , हर भारतीय भाषा अपने आप में सजीव और सम्पन्न है । 

मराठी भाषा बोलते या सुनते ही हमें छत्रपती शिवाजी महाराज, महारानी अहिल्याबाई होल्कर, संत तुकाराम, भक्त  जनाबाई और महान कवि कुसुमग्रज जी ( जिनकी जयंती २७ फरवरी को हर साल  मराठी दिवस मनाया जाता है ) जैसे कई महानायक स्मरण हो आते हैं । गुजराती में संत नरसी मेहता और हम सब के प्यारे बापू की छवि सरलता से दिखाई पड़ जाती है । अवधि, मैथिली और ब्रज-भाषा में तुलसी-दस जी, सूर-दास जी और भक्ति संप्रदाय के अनेक संतों के उपदेश छिपे मिलते हैं तो राजस्थानी भाषा महाराणा प्रताप की वीरता और पन्ना -दाई के बलिदान से परिचय करा देती है । पंजाबी भाषा में हमारे सिख गुरुओं का अनुपम ज्ञान छिपा  है तो दक्षिण की भाषाएं  में महर्षि कंबन, भक्त अंडाल और महान सम्राट राजा-राजा चोला का पुण्य- प्रताप । 

मुझे भारत की हर भाषा समान रूप से प्रिय है ( यद्यपि हिन्दी का मेरे मन में विशेष स्थान है क्योंकि वह मेरी राष्ट्रभाषा और मातृभाषा दोनों है )

फिल्मी गीतों ने भी इस संपन्नता को बखूबी दर्शाया है । "अंग्रेजी में कहते हैं आय लव यू , गुजराती मा बोलूँ तमे प्रेम करछों , बंगाली में कहते हैं "आमी तुमारके भालो-बाषी  और  पंजाबी में कहते है "मैं तैनु प्यार करना " जैसे गीत बड़े ही रोचक ढंग से इस विविधता का परिचय कराते हैं ।  

इसके बाद भी  मैं अपने आस-पास देखती हूँ  आज हम दिनों-दिन अपनी मातृभाषा और राष्ट्र-भाषा से दूर होते जा रहे हैं । आज युवा फैशन और आधुनिकता के नाम पर आपनी मातृभाषा और राष्टभाषा हिन्दी  के बनिस्पत न केवल अंग्रेजी और अन्य पाश्चात्य भाषाओं को ऊंचा मानते हैं पर अपनी भाषा को बोलने में झिझक और संकोच का अनुभव भी करते हैं ।  अंग्रेजी की पुस्तक दो तो बड़ी सरलता और चाव से पढ़ जाएंगे पर हिन्दी या फिर उनकी अपनी ही मातृभाषा या प्रांतीय भाषा में कविता भी  पढ़ने  कहो  तो बोलेंगे " ये हमारे लिए बहुत अधिक क्लिष्ट है, हमें समझने में कठिनाई होती है। आज कल इस भाषा में कौन पढ़ता  लिखता है यार , मैं मराठी / गुजराती / को और भारतीय भाषा बोल तो लेता हूँ पर पढ़ना नहीं हो पाता"। यहाँ तक की कुछ लोग  तो हनुमान चालीसा  का पाठ भी अंग्रेजी में करना पसंद करते हैं । 

हमारे प्रथम राष्ट्रपति  माननीय  डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी  का कथन  था " जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य पर गर्व न हो, वह उन्नति नहीं कर सकता "।  रमण -इफेक्ट का शोध करने वाले और नोबल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय वैज्ञानिक सी . वी रमण  ने कहा था   "हमें विज्ञान  की शिक्षा बच्चों  को उनकी मातृभाषा में ही देनी चाहिए, अन्यथा विज्ञान एक छद्म कुलीनता और मगरूरीयत भरी गतिविधि बन कर रह जाएगा"  पर इसके बाद भी हम अंग्रेजी बोलने को ही शिक्षित होने का एकमात्र परिचय समझते हैं । जपान , फ्रांस और स्पेन जैसे कई देश अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा में शिक्षित करते हैं  पर भारत में  हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में शिक्षा देने वाले विद्यालयों को अंग्रेजी- माध्यम विद्यालयों से निम्न माना जाता है ।  

मैं इसे सब से बड़ी विडंबना  मानती हूँ क्योंकि जिस प्रकार अपनी माँ का हाथ छुड़ाकर भाग जाने वाला बच्चा बाज़ार में गुम  हो जाता है और अपने घर का पता नहीं कर पाता, उसी प्रकार अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा से विमुख देश अपनी पहचान खो देता है और उसका अस्तित्व खत्म हो जाता है । अतः  समय रहते जाग जाना ही हितकर है ।

एक दुख की बात यह भी है कि आज समाज में कई ऐसे तत्व हैं जो प्रांतीय भाषा पर गौरव करने के नाम पर राष्ट्र- भाषा हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं   का तिरस्कार करने लगे हैं और कुछ अपनी राष्ट्र-भाषा को बचाने के लिए अन्य  भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी को निम्न बताने लगे हैं । इसमें हमारी शिक्षा पद्धति का भी बहुत बड़ा हाथ है। विद्यालयों में अंग्रेज़ी और प्रांतीय भाषा को अनिवार्य रखा गया है पर राष्ट्रभाषा हिन्दी वैकल्पिक कर दी गयी।  यह हमारे लिए बहुत घातक है क्योंकि अपनी भाषा पर गर्व करना तभी सार्थक है जब वह हमें हमारे राष्ट्र और विश्व से जुडने में सहायता करे । यदि ऐसा न हुआ  तो हमारे देश की एकता को ठेस पहुँचती रहेगी और हम अपनी "विविधता में एकता" की सुंदर पहचान और " वसुदैव कुटुंबकम" की संस्कृति को खो देंगे । 

मैं ने बचपन  में अपनी हिन्दी पाठ्यपुस्तक में एक वाक्य पढ़ा था " हर भाषा गंगाजल के समान निर्मल है "। यह वाक्य सदैव मेरे साथ रहेगा । हर भाषा अपने आप में पूर्णतः स्वच्छ और सुंदर है और अपनी संस्कृति की संवाहक है।   भाषा का तिरस्कार मानव-संस्कृति का तिरस्कार है और इसीलिए हमें हर भाषा का सम्मान करना चाहिए 

अंत में मैं यही कहूँगी कि  मैं कृतज्ञ हूँ कि  मेरा जन्म भारत में हुआ जहाँ इतनी साहित्यिक और सांस्कृतिक संपन्नता है । मैं इसीलिए भी कृतज्ञ हूँ कि  मेरे घर और मेरे विद्यालय के कारण भारत की हर संस्कृति से मेरा परिचय हो सका और इसीलिए भी कि मेरी राष्ट्रभाषा ही मेरी  मातृभाषा है । 

तुम्हारे माध्यम से आज सब से यह निवेदन भी करती हूँ  कि  अपनी मातृभाषा और राष्ट्र-भाषा की निकट आने और रहने का प्रयास करें। जिस सुख और संतोष की प्राप्ति अपनी मातृभाषा में अभव्यक्ति  करने से मिलेगी , वह सच  ही अनूठा है । में इस बात का अनुभव स्वयं करती हूँ , यही कारण है मेरी प्यारी डायरी कि  मैं तुमसे संवाद भी अपनी मातृभाषा में करती हूँ ।  

चलो बहुत रात हो चुकी है,  आज  तुमसे बात-चीत करने में समय का पता ही न चला । तुम भी सो जाओ , शुभ-रात्री। फिर मिलूँगी । 

तुम्हारी अनंता 


  




 




 






 









 



 



 



   

मातृ-भाषा के प्रति कृतज्ञता

(यह पोस्ट कल रात ही लीखा गया था, तकनीकी कमी के कारण प्रकाशित न हो सका । आज प्रकाशित कर रही हूँ इसीलिए तिथि और समय कल का ही है ) दिनांक :- ०२...