दिनांक:- २६ नवम्बर २०२२
समय:- दोपहर १२ :०० बजेप्रिय डायरी,
आज बड़े दिनों बाद माँ के साथ बैठ कर गाने सुन रही थी । माँ को काम करते-करते पुराने फिल्मी -गीत सुनना अच्छा लगता है और अब उनके साथ सुनते-सुनते कुछ गीत तो मुझे भी अच्छे लगने लगे हैं, बल्कि कुछ गीत आज के गानों से अधिक सुरीले और अर्थपूर्ण लगते हैं ।
आज ऐसा ही एक गीत सुना - "तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है , जहाँ भी जाऊँ , ये लगता है तेरी महफ़िल है" और बस मुझे "नन्नन" की याद आ गई ।
नन्नन जितनी कोमल और स्नेहिल हैं, उतनी सबल भी हो सकती हैं और समय पड़ने पर सही फटकार भी लगा सकती हैं, यह मुझे तब पता चला जब मैं पांचवी कक्षा में थी। मैं रोज़ अपनी बाकी सहेलियों के साथ स्कूल से घर लौटती, उस में कुछ लड़कियाँ थोड़ी ज़्यादा चतुर थीं। बचपन की मित्रता में लड़ाई-झगड़े और थोड़ा चिढ़ाना आम बात होती है। मेरी कुछ सहेलियों ने मुझे भी चिढ़ाने की कोशिश की, यह देख कि मैं सहजता से चिढ़ रही हूँ, उन्हें मुझे तंग करने में ज़्यादा मज़ा आ रहा था। नन्नन यह खिड़की से देख रहीं थीं, वे नीचे उतर कर आयीं और सब बच्चों को अच्छी फटकार लगाई पर अगले ही क्षण बड़े प्रेम से मेरी सभी सहेलियों को अपने पास बुलाया, अच्छे और बुरे मज़ाक के बीच का अंतर समझा कर, बहुत ही स्नेह से हम सब की मित्रता फिर से करा दी।
मेरी सहेलियाँ तो अचंभित ही थीं, पहले डाँट फिर इतना प्यार। मैं मात्र आनंदित थी, मुझे तो पता था कि अंत में होना क्या है।
अनुशासन के साथ नन्नन की दो सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा थी सदाचरण और सच्ची मित्रता। नन्नन ने मुझे हमेशा समझाया कि किसी को जान-बूझ कर दुखी करने से बड़ा गलत काम कुछ नहीं। वैसे ही उनका यह भी कहना था कि अच्छा मित्र होना, अच्छे मनुष्य होने कि निशानी है। यदि कोई बच्चा अच्छा मित्र बनने का अभ्यास करे, तो आगे चल कर अच्छा इंसान भी बनेगा। यह बात उन्हों ने मुझे कृष्ण-सुदामा और प्रभु राम-सुग्रीव की मित्रता की कथा सुनाकर बताई थी। उसी प्रकार अपने गुरुजनों का आदर करने की शिक्षा भी मुझे छोटी आयु से ही दी गई, यही कारण है कि आज भी अपने शिक्षकगणों का आशीष मुझे मिलता रहता है ।
जैसे- जैसे मैं बड़ी हुई, अच्छे और बुरे मित्रों के बीच का अंतर भी उन्हों ने समझाया। ये ज्ञान मेरे तब बहुत काम आया जब मैं ने कॉलेज में प्रवेश किया। उनका स्पष्ट कथन था, यदि कोई हमारा सच्चा मित्र हो तो हमें कोई भी गलत काम करने के लिए कभी नहीं उकसाएगा, ना ही कभी हमें कुछ ऐसा करने को कहेगा जिस में हमारा अहित हो या हमारी अंतरात्मा उस कार्य को करने की अनुमति न देती हो और ना ही कभी हमें कोई अच्छा कार्य करने से रोकेगा । नन्नन की यह सभी शिक्षाएं केवल कथन नहीं थीं , यह सभी बातें उनके आचरण में भी समाहित थीं ।
आज मैं तुम्हारा एक पन्ना अपनी जीवन की इस पहली गुरु को समर्पित करती हूँ, जिनके बिना मेरा जीवन अधूरा है।
साथ ही साथ, मैं यह भी कामना करती हूँ कि मेरी तरह प्रत्येक बच्चे और युवा को उसके घर के बुजुर्गों की छत्र-छाया मिले। हमारे नाना-नानी और दादा-दादी का प्यार न केवल हमारा चरित्र और जीवन सँवारता है , बल्कि हर क्षण हमें राह दिखाता है। किसी ने सच ही कहा है "जीवन की सबसे बड़ी और सबसे अच्छी पाठशाला हमारे बुज़ुर्गों के चरणों में है।
ठीक है , तुम्हारे साथ आज बहुत लंबा समय बिताया। खाने का समय हो रहा है और माँ भी नाराज़ हो रही है।
तुम से कल मिलती हूँ।
तुम्हें एक बात और बतानी है, मेरे कॉलेज में हमें रिसर्च -असाइनमेंट मिला है , शिक्षा या बाल-मनोविज्ञान संबंधी हम किसी भी विषय में एक री -सर्च कर सकते हैं । अतः संभव है कि किसी दिन तुमसे बात करने में देर हो या किसी दिन तुमसे मिलने आ ही न पाऊँ । तुम भी मेरे लिए प्रार्थना करना कि मुझे सफलता मिले , अगले सप्ताह फिर मिलेंगे , तब तुम्हें तुम्हारा नाम भी मिल जाएगा ।
बाये, सी यु।
सोचा , आज एक बार पुनः उन पलों को जियूँ जो मेरे जीवन की सबसे अनमोल पूँजी है । अतः , आज मैं तुम्हें अपने जीवन के सबसे विशेष और अनमोल व्यक्ति से मिलाने लायी हूँ, मेरे जीवन की पहली गुरु, मेरी नानी जिन्हें मैं प्यार से ""नन्नन" कह कर बुलाती हूँ। बचपन में मैं नानी शब्द पूरा बोल नहीं पाती थी, तब से "नन्नन" नाम चिपक गया है। हम सब के जीवन में कोई -न -कोई ऐसा व्यक्ति ज़रूर होता है , जिसे हम अपना सबसे मजबूत संबल मानते हैं , जिसमें अपने मित्र , गुरु और मार्गदर्शक को एक साथ पाते हैं ,मेरे लिए वह व्यक्ति नन्नन हैं ।
पता है , आज तुमको मुझ में जो भी अच्छाई दिखाई देती है, वह सब मेरी नन्नन कि ही देन है। मेरा पालन- पोषण उन्हों ने ही किया है। माँ ऑफिस जाती थी और शाम को ही घर आती, इसीलिए मेरे बालपन का सबसे अधिक समय नन्नन के साथ बीता और इसे मैं अपने जीवन का सब से बड़ा सौभाग्य मानती हूँ।
नन्नन बहुत अनुशासन प्रिय है थीं , शुद्ध कर्मयोग का प्रतीक। सदैव घड़ी के अनुसार चलने वाली, बल्कि घड़ी से भी पहले। उनके "नौ दस ग्यारह बारह" एक साथ बजते, यह बात हमारे घर में जितने गर्व की होती , उतनी ही हँसी की भी। जब भी हमें सुबह नाश्ते के लिए या रात को सोने में देर होती तब नन्नन कहतीं " नौ दस ग्यारह बारह बज रहा है बेटा, नाश्ता कब करोगी/सोने कब आओगी ?" माँ और मेरी हंसी छूट जाती, तब हम लोग उनसे कहते " अब यह भी बता दो, कि निश्चित कितने बजे हैं " । जब सर्दी के मौसम में दिन छोटे हो जाते तब यह वाक्य और भी अधिक सुनने को मिलता , विशेष कर सुबह की ओर, कारण दिन जल्दी बीतता सो नन्नन की पूजा सुबह आठ बजे के स्थान पर नौ बजे होती और उन्हें देर हो रही है , यह सोच कर वे परेशान हो जातीं ।
नन्नन बहुत अनुशासन प्रिय है थीं , शुद्ध कर्मयोग का प्रतीक। सदैव घड़ी के अनुसार चलने वाली, बल्कि घड़ी से भी पहले। उनके "नौ दस ग्यारह बारह" एक साथ बजते, यह बात हमारे घर में जितने गर्व की होती , उतनी ही हँसी की भी। जब भी हमें सुबह नाश्ते के लिए या रात को सोने में देर होती तब नन्नन कहतीं " नौ दस ग्यारह बारह बज रहा है बेटा, नाश्ता कब करोगी/सोने कब आओगी ?" माँ और मेरी हंसी छूट जाती, तब हम लोग उनसे कहते " अब यह भी बता दो, कि निश्चित कितने बजे हैं " । जब सर्दी के मौसम में दिन छोटे हो जाते तब यह वाक्य और भी अधिक सुनने को मिलता , विशेष कर सुबह की ओर, कारण दिन जल्दी बीतता सो नन्नन की पूजा सुबह आठ बजे के स्थान पर नौ बजे होती और उन्हें देर हो रही है , यह सोच कर वे परेशान हो जातीं ।
मेरा पालन-पोषण भी सम्पूर्ण अनुशासन से किया। किस समय पढ़ाई करनी है, कब खेल का समय है, टीवी कितने समय तक देखना है, सब कुछ एक अनुशासित टाइम - टेबल के अनुसार होता पर यह अनुशासन इतनी कोमलता, सहजता और आनंद के साथ किया गया कि सब कुछ खेल-खेल में हो गया।
आज जब मैं अपने आस-पास किसी छोटे बच्चे को अनुशासन में न रहने के लिए या पढ़ाई-लिखाई की बात पर माता-पिता से डांट खाते देखती हूँ या फिर क्लास में मिले अंकों के लिए माता-पिता को हैरान-परेशान, बच्चों को एक ट्यूशन से दूसरे ट्यूशन भेजते देखती हूँ, तो सोंचती हूँ कि नन्नन कितनी मौलिक और बुद्धिमान थीं। अनुशासन के लिए कठोरता तो सभी करते हैं पर मेरी नन्नन कोमल अनुशासन का मूर्तिमान रूप हैं।
वैसे तो नन्नन के साथ बचपन की यादें बहुत है पर मेरा सब से प्यारा समय था "कहानियों का समय"।नन्नन हर रात मुझे कोई न कोई नई कहानी सुनाती, कभी भगवान राम की, कभी कान्हा जी के बचपन की ढेरों कहानियाँ, और कभी पंच-तन्त्र और जातक कथा की खूब सारी कहानियाँ और मुझे यह कहते हुए बहुत गर्व होता है कि मैं ने अपने सभी जीवन-मूल्य नन्नन की कहानियों से सीखे। आज बड़े होने पर भी मुझे नन्नन की कहानियाँ सुनना और उनके साथ समय बिताना अच्छा लगता , बस इतना फर्क इतना था कि उनकी कहानियाँ सुनने के साथ-साथ, मैं भी उन्हें एक -आध कहानियाँ सुनाने लगी थी । कभी ब्लॉग जगत, प्रतिलीपि या किसी पुस्तक में पढ़ी हुई या फिर अपनी लिखी हुई।
नन्नन जितनी कोमल और स्नेहिल हैं, उतनी सबल भी हो सकती हैं और समय पड़ने पर सही फटकार भी लगा सकती हैं, यह मुझे तब पता चला जब मैं पांचवी कक्षा में थी। मैं रोज़ अपनी बाकी सहेलियों के साथ स्कूल से घर लौटती, उस में कुछ लड़कियाँ थोड़ी ज़्यादा चतुर थीं। बचपन की मित्रता में लड़ाई-झगड़े और थोड़ा चिढ़ाना आम बात होती है। मेरी कुछ सहेलियों ने मुझे भी चिढ़ाने की कोशिश की, यह देख कि मैं सहजता से चिढ़ रही हूँ, उन्हें मुझे तंग करने में ज़्यादा मज़ा आ रहा था। नन्नन यह खिड़की से देख रहीं थीं, वे नीचे उतर कर आयीं और सब बच्चों को अच्छी फटकार लगाई पर अगले ही क्षण बड़े प्रेम से मेरी सभी सहेलियों को अपने पास बुलाया, अच्छे और बुरे मज़ाक के बीच का अंतर समझा कर, बहुत ही स्नेह से हम सब की मित्रता फिर से करा दी।
मेरी सहेलियाँ तो अचंभित ही थीं, पहले डाँट फिर इतना प्यार। मैं मात्र आनंदित थी, मुझे तो पता था कि अंत में होना क्या है।
अनुशासन के साथ नन्नन की दो सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा थी सदाचरण और सच्ची मित्रता। नन्नन ने मुझे हमेशा समझाया कि किसी को जान-बूझ कर दुखी करने से बड़ा गलत काम कुछ नहीं। वैसे ही उनका यह भी कहना था कि अच्छा मित्र होना, अच्छे मनुष्य होने कि निशानी है। यदि कोई बच्चा अच्छा मित्र बनने का अभ्यास करे, तो आगे चल कर अच्छा इंसान भी बनेगा। यह बात उन्हों ने मुझे कृष्ण-सुदामा और प्रभु राम-सुग्रीव की मित्रता की कथा सुनाकर बताई थी। उसी प्रकार अपने गुरुजनों का आदर करने की शिक्षा भी मुझे छोटी आयु से ही दी गई, यही कारण है कि आज भी अपने शिक्षकगणों का आशीष मुझे मिलता रहता है ।
जैसे- जैसे मैं बड़ी हुई, अच्छे और बुरे मित्रों के बीच का अंतर भी उन्हों ने समझाया। ये ज्ञान मेरे तब बहुत काम आया जब मैं ने कॉलेज में प्रवेश किया। उनका स्पष्ट कथन था, यदि कोई हमारा सच्चा मित्र हो तो हमें कोई भी गलत काम करने के लिए कभी नहीं उकसाएगा, ना ही कभी हमें कुछ ऐसा करने को कहेगा जिस में हमारा अहित हो या हमारी अंतरात्मा उस कार्य को करने की अनुमति न देती हो और ना ही कभी हमें कोई अच्छा कार्य करने से रोकेगा । नन्नन की यह सभी शिक्षाएं केवल कथन नहीं थीं , यह सभी बातें उनके आचरण में भी समाहित थीं ।
नन्नन का स्नेह और अपनत्व केवल घर तक सीमित नहीं था , अपने आस-पास के सभी परिचितों और माँ और मेरे मित्रों को भी मिलता रहता । मुझे टिफिन देते समय, मेरी सहेलियों के लिए भी अपने हाथ के बनाए पकवान पैक करना , यह कह कर "बेटा , सब के साथ मिल- बाट कर खाना "। कभी यदि मैं उन्हें घर आ कर बताती कि मेरी कोई सहेली दुखी है या अस्वस्थ है और उसके प्रति अपनी चिंता व्यक्त करती तो बड़े स्नेह से यह कहना " कोई बात नहीं बेटा , भगवान जी सब ठीक कर देंगे" और सच्चे मन से उनके लिए शुभ कामना और आशीष देना । कभी-कभी जब मैं उसके अगले दिन स्कूल या कॉलेज से घर लौटती, तब उस सहेली का हाल चाल भी पूछतीं "तुम्हारी सहेली कल तो रो रही थी, आज कैसी है"।
नन्नन का कर्मयोग भी इसी प्रकार अनुशासन और ममत्व से चलता रहता, चाहे उनका कमर और उनके पैर दर्द से बेहाल क्यों न हों, वे घर का काम करना नहीं छोड़तीं । हमारे लिए स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन बनाना, मेरे बालों में तेल लगाना, या हमारी चीजों को सजाना-सवारना, मुझे अपने पास बैठा कर जीवन के अनुभव बताना , मुझे कोई-न-कोई शिक्षा और प्रोत्साहन देना , अनवरत चलता रहता ।
उनके बनाये पकवान हर त्योहार और उत्सव में रंग भर देते और कभी-कभी तो उनके हाथ का बना खाना खाना अपने आप में उत्सव होता । दुर्गा -पूजा और दीपावली में उनके हाथ के नारियल के लड्डू, पीड़किया , लवंग-लता, यहाँ तक की रसगुल्ले , रसमलाई और छोले-भटूरे भी और होली में उनके दही-बड़े और मालपूए की बड़ी धूम मचती । मेरे लिए तो हर कौर में परमानंद होता । सामान्य दिनों में भी हमारा फ्रिज कभी खाली न होता , नन्नन एक से एक पौष्टिक और स्वादिष्ट पदार्थ बना कर रखतीं " हनु गिरधारी को पढ़ाई करते-करते भूख लगेगी तो खाएगी "। हाँ , नन्नन का वश चलता तो मुझे प्यार से सारे भगवानों के नाम दे देतीं । बचपन से ही कभी गिरधारी, कभी गणेशु तो कभी कोई और भगवान का नाम । घर में पुकार का नाम हनु ( हनुमान जी पर ) और मेरा शुभ नाम "अनंता " भी रामायण से ढूंढ कर उन्हों ने ही रखा ।
घर में कोई भी सब्ज़ी यदि मेरे पसंद की बनी हो , विशेष कर पनीर , कटहल , स्वादु बैंगन या आचारी मिर्ची, तब वे मुझे अपनी थाली में से थोड़ी सब्ज़ी ज़रूर निकाल कर मेरी थाली में डाल देतीं । माँ कभी-कभी नराज होतीं क्योंकि नन्नन स्वयं ही कम खातीं थीं, बड़े होने पर तो मैं भी कभी-कभी मना करने लगी थी , पर वे नहीं मानतीं, कहतीं " बड़ों का स्नेह और आशीष ठुकराते नहीं हैं "।
मैं भी उसके बाद से उनका आशीष मान कर ही उनकी थाली की सब्ज़ी खाती थी ।
नन्नन के लिए उनका घर और उनके बच्चे उनकी जीवन-धूरी थे । अपने जीवन के अंतिम दो- ढाई वर्ष उन्हों ने हमें तरह-तरह के पकवान खिला कर और घर को अपनी हस्त-कलाओं से सजाने में व्यतीत किया । लॉक- डाउन के समय से ही उनकी इन सभ कार्यों में एक विशेष तीव्रता और निरन्तरता आ गई थी । मानों , अपनी हस्तकला के रूप में घर के कोने-कोने को अपने स्नेह और आशीष से सींच रहीं हों ( तब नहीं सोचा था कि वे अस्वस्थ होंगी और इस जून भगवान जी उन्हें अपने पास बुला लेंगे )। वैसे ही उनके हाथों के बनी कौन-कौन से व्यंजन मुझे अधिक प्रिय हैं , वह भी सिखाया, कहतीं " जो चीजें तुमको खाना पसंद है, उन्हें बनाना तो सीख ही लो ।
आज भी नन्नन मेरा सब से बड़ा मानसिक बल और सब से बड़ा आधार हैं। भले ही माँ जानकी ने उन्हें अपने पास बुला लिया हो , उनकी शिक्षाएं, बातें और उनका आशीष सदैव मेरे साथ हैं और मेरे जीवन की अनमोल पूँजी हैं । नन्नन अब मेरे लिए पूरा घर हो गई है , मेज़ पर बिछे टेबल -क्लॉथ से लेकर बाथरूम के आगे बिछे फुट- मैट तक, सब उन्हीं का सिला हुआ है । उनके हाथ के सिले हुए सुंदर फ़्रॉक मेरे लिए उनका अनमोल स्नेह है । मम्मा (बड़ी मासी ) के हाथ के छोले-भटूरे के स्वाद में , माँ की गृह-कुशलता में , मौसाजी के इडली और डोसे में , मेरी कविताओं में , सब में उनका अस्तित्व समाया है ।
आज मैं तुम्हारा एक पन्ना अपनी जीवन की इस पहली गुरु को समर्पित करती हूँ, जिनके बिना मेरा जीवन अधूरा है।
साथ ही साथ, मैं यह भी कामना करती हूँ कि मेरी तरह प्रत्येक बच्चे और युवा को उसके घर के बुजुर्गों की छत्र-छाया मिले। हमारे नाना-नानी और दादा-दादी का प्यार न केवल हमारा चरित्र और जीवन सँवारता है , बल्कि हर क्षण हमें राह दिखाता है। किसी ने सच ही कहा है "जीवन की सबसे बड़ी और सबसे अच्छी पाठशाला हमारे बुज़ुर्गों के चरणों में है।
तुम्हारे माध्यम से ही नन्नन को आज सुने गीत की कुछ पंक्तियाँ समर्पित करती हूँ :-
तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शमिल है ,
जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफिल है ।
हर एक फूल किसी याद सा महकता है,
तू पास हो कि नहीं , फिर भी तू मुकाबिल है ।
ठीक है , तुम्हारे साथ आज बहुत लंबा समय बिताया। खाने का समय हो रहा है और माँ भी नाराज़ हो रही है।
तुम से कल मिलती हूँ।
तुम्हें एक बात और बतानी है, मेरे कॉलेज में हमें रिसर्च -असाइनमेंट मिला है , शिक्षा या बाल-मनोविज्ञान संबंधी हम किसी भी विषय में एक री -सर्च कर सकते हैं । अतः संभव है कि किसी दिन तुमसे बात करने में देर हो या किसी दिन तुमसे मिलने आ ही न पाऊँ । तुम भी मेरे लिए प्रार्थना करना कि मुझे सफलता मिले , अगले सप्ताह फिर मिलेंगे , तब तुम्हें तुम्हारा नाम भी मिल जाएगा ।
बाये, सी यु।
तुम्हारी अनंता